डर और उम्मीद (Fear and Hope)

आज की रात
हवाओं के परों पर
गिरती दिख रही है
कोई परछाई…
मुझे अँधेरे से डर नहीं लगता है.
मगर ये जानता हूँ
अंधेरों की परछाइयों को
कितना वक्त लगता है…

ढलने में, पिघलने में.

नहीं कोई घर बना है
मेरे डर का.
न कोई उम्र बाबस्ता हुई है
मेरे डर की.

मैं ये भी जानता हूँ कि
सुबह की रौशनी
अब उस किनारे है
जहां कुछ लोग
आवाजें दिया करते हैं उस को
जिसके ये सारे इशारे हैं.

मैं उन आवाजों में
ढूँढा किया करता हूँ
कुछ गजलें.

जिन्हें तुमको सूना कर
कुछ नए से
रंग भर दूं.
अपने डर में
अपने डर को
काबू कर लूं.

कोई कहता है की हंस दो
डर पे या मुश्किल पे …
वो डर जाते हैं.
उन्हें लगता है की
ये कैसा दीवाना है…
कितना सयाना है…

जो मुरझाए हुए फूलों को
दे के
उस सनम से कहता फिरता है.
की ये ले –

इनमे न ओस की बूँद
न खुशबू का शुमार है.
मगर ये सच की इक डाली है,
इक पुरकैफ बहार है.

की जिसको थाम कर
तुम से समझ जाओगी की
नहीं होते हैं पाँव
डर-ओ-मुश्किल के
नहीं होते
नुकीले हाथ उनके.
उनका तो बस होता है
धुंधला सा चेहरा.
वो चेहरा
जिसको उस रब ने बनाया है.
और चेहरों से क़त्ल नहीं होते,
तुझे किसी ने उल्लू बनाया है.

यही कह कर वो छोटी से परी
आँखों से ओझल हो गयी है.
वो बादल की परछाई
आँखों से उतर कर
झील के पहलू में
सूरज का नया इक अक्स ले कर
इस सुबह फिर
ढल सी गयी है.
जिंदगी फिर से
सहल सी हो गयी है.

Unknown's avatarAbout Amit
Conventional, boring, believer, poet, Shayar (to be precise), lover of music, musical instruments, and all that can be called music (theoretically or metaphorically), jack of all master of none, more of a reader less of a writer, arbit philosopher, foolish debater.. and many more such things.. like so many people!

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