Dhruv (Gappu)

Before Dhruv becomes old enough to ask why bhaiya has a poem on this blog, but he doesn’t- an old one written on the day I held him first –

वो पूछेंगे की कौन हो तुम
कह देना
मैं गप्पू हूं
गप्पू
वो गाल में होता है ना
वो वाला गुप्पु

पापा के कंधों पर सोता रहने वाला
मम्मा की गोदी में हंसने रोने वाला

भैया दिन है तो रात हूँ मैं
उसकी हर अधूरी बात हूँ मैं

किसी का सपना किसी की जी लेने की चाहत
जैसे आसमान में उड़ती पतंग
या किसी के दबे पाँव चलने की आहट

कभी ऊँगली पकड़ता हूँ
कभी राह दिखाने वाला ध्रुव तारा
कभी आरोह, कभी अवरोह
कभी आपने में छुपाने वाला अँधेरा
कभी आँचल में समेत लूँ , वो उजियारा

कहना

मैं गप्पू हूँ , गप्पू
मेरा नाम सुन के चेहरे पे मुस्कराहट आती है
सूखे होंठों पे हंसी
गीली आँखों में चमक
और ठहरे लफ़्ज़ों में थरथराहट आती है

गप्पू गप्पें भी हांकते हैं
तोतली बोतली आवाज़ों में
कह देना
मेले दोस्त बनोगे तो कहानी भी छुनाऊँगा

मगर याद रहे
मेरे साथ मेरी कहानी सुन के
तुम भी थोड़े गप्पू हो जाओगे
मेरी उँगलियों के घेरे में
तुम अपनी नयी तस्वीर बनाओगे

गप्पू का मतलब मत समझाना गप्पू

वर्ण सब जल जाएंगे,
पूछेंगे
सिर्फ तुम क्यों गप्पू? मैं भी गप्पू?
तुम हंस कर केह देना
हाँ, तुम, मैं , हम सब गप्पू

बस मेरी ठिठियाती हंसी में जुड़ जाओ
फिर सब कुछ बस गप्पू ही गप्पू

The missus does not want me destroying his name as well, but what do you do when you have kids who give you the feeling of laddu and gappu!

Aaroh

This one was penned on the morning of 9th September, the day my little one, Aaroh, was born. The delay? Well…

कहीं अपनी नज़र ना लग जाए,
अपनी आवाज भी पर्दों में छुपा दी मैंने।

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तुमने आने की खबर यूँ दी है…
जैसे शाम के धुंधलके में
कमरे के कोने में खड़ा वो गिटार
हवा के झोंके से हिलते पर्दों से टकरा कर
एक नयी सरगम बना गया हो।

एक तूफ़ान था बिखरा सा झरोखे के परे
एक ख़ामोशी थी सहमी हुई सिरहाने में
ये नाखून ख़त्म हो से गए थे
पसीने से लथपथ एक साया
और तीन जोड़ी आँखें इंतज़ार में
और न जाने कितने कान जो फ़ोन की घंटी
में तुम्हारा ज़िक्र ढूंढते थे

और जब पर्दा खुला
नेपथ्य से इक आवाज़ आयी
बाअदब बमुलायाज़ा होशियार
शहंशाह ए हुकूमत
ताजीरात ए दास परिवार
सिंघासन पर ‘आरोह’ कर रहे हैं।

साज़ के सुर की तरह
सुबह के नूर की तरह
शाम की अज़ान के मानिन्द
इक नए दस्तूर की तरह

हवा का इल्म हो तुम
होठों की आवाज़ हो तुम
इक हसीं ख्वाब हो तुम
एक नया आगाज़ हो तुम

इक दरख़्त का साया
इक आम की गुठली हो तुम
मेरे लड़खड़ाते कदमो को थाम ले
वो ऊँगली हो तुम

तुम मेरा कल हो
तुम्हारा आज हूँ मैं
तुम्हारी अनकही कहानी का
अंदाज़ हूँ मैं

मेरी जन्नत मेरा इल्हाम हो तुम
मेरे चेहरे में मेरी रूह का पैगाम हो तुम
तुम ही आरोह हो अवरोह तुम ही हो मेरा
तुम ही मेरा राग हो, संगीत हो, मेरी ताल हो तुम

RIP Dadaji… We will miss you

For my dadaji.. who left us on the evening of April 26th, 2011.

आज फिर बूँद एक टूट गयी
आज फिर खो दिया है कुछ मैंने
जैसे सदियाँ गुज़र गयीं पल में
जैसे सब ख़त्म हुआ, फिर भी अधूरा है कुछ

अभी कल शाम की ही बात है ये
हाथ जोड़े खड़ी थी एक नज़र
रात का इंतज़ार करते हुए
एक झूठा करार करते हुए
मैं कहीं जाऊं क्यों, इस कोने में रहने दो मुझे
मेरा क्या है मैं बस इस रात का मुसाफिर हूँ
बस ज़रा देखने दो आज भरी आँखों से
क्या पता मुझको मिलें या न मिलें कल ये पल

फिर उसी कमरे के अँधेरे में
अब कोई स्विच टटोलता भी नहीं
पान की डाली वो सूनी होगी
और कोई शाम को टहलेगा नहीं

आज माँ मेरी परेशान ना होगी
पर बहोत दर्द होगा आँखों में
आज ये सोचना नहीं होगा
कौन से जूस से दिल बहलेगा
और क्या सब्जी बनेगी घर पर
और मसाले ये ज्यादा तेज़ तो नहीं
देखो, वो आये नहा कर या नहीं
देखो, वो धोती, वो कुर्ता, वो नाश्ता वो चाय

ना जाने कितनी ही ऐसी वैसी बातें लेकर
ज़िन्दगी का वो एक रूटीन गया
सर पे साए की तरह रहता था जो
आज वो पेड़ किसी झील में बहता होगा

कैसे भूलेंगे वो एक मंज़र
जो जभी आँखों से गुज़रा ना था
कितने सालों से देखा है उनको
अपने पैरों पे शाम करते हुए
आज कंधों पे उठे, आखिरी घर जाते हैं
आप जैसे भी कभी, इस तरह कमज़ोर नज़र आते हैं

कल जो देखा था वो सिमटा हुआ, सकुचाया बदन
और किसी कोने में फूला हुआ, बिखरा सा बदन
हाथ नीले पड़े थे और था ठंडा सा बदन
एक मुट्ठी में बंधा आग पे लेटा सा बदन

कैसे भूलूंगा वो एक मंज़र
कैसे जायेगी साँसों में बसी ये राख की बू
कौन बोलेगा थैंक यू वो घर पहुँचने पर
कौन बोलेगा वो सॉरी, वो हाथ जोड़े हुए

कैसे बदलेंगे फिर वो एक नियम सालों से जीते हैं जिसे
आज फिर  बूँद एक टूट गयी, आज फिर खो दिया है कुछ मैंने

झील में डूबा चाँद

गई रात हमने चाँद को
झील में डुबो के रखा…
नर्म हो गया,
सिला सिला भी…
जैसे चाय की प्याली में
अरारोट बिस्किट का टुकड़ा
डूब गया हो…

चाँद निगल कर रात गुजारी,
जिगर के छाले और पक गए…
दर्द दबाया,
सूखे कपड़ो से किनारियाँ दबा कर
फुलकों की तरह फूले अरमानों का
तकिया बनाया…

रात बहोत महीन थी…
रात के मांझे से कट कर
चाँद झील में डूब गया था…

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